✍️जय सिंह यादव

🔴रायबरेली / सदन में बिना किसी बहस के सिर्फ मेज़ थपथपाकर अपने वेतन-भत्ते और अनगिनत नि:शुल्क सुविधाएं लेने वाले और हर चुनाव में सरकार बनाने का सपना देखने वाले नेताओं को लाखों नौजवानों, सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों की घनीभूत पीड़ा की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और समय रहते ही इनके निदान का प्रयास भी करना चाहिए।
आम जनता के बीच सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को समाज का सबसे भ्रष्ट तबका और अर्थव्यवस्था पर बोझ साबित करने वाले दलों और नेताओं को यह भी याद रखना चाहिए कि उनके सत्तानशीं और साहिबे-मसनद बनने के बाद यही सरकारी अधिकारी व कर्मचारी उनके तमाम चुनावी वादों और घोषणाओं को अमली जामा पहनाते हैं जिनके आधार पर नेताजी लोग चुनाव में वोट ही नहीं मांगते हैं बल्कि जीतकर पुनः सरकार बनाने का दावा भी करते हैं…..ये वही सरकारी अधिकारी और कर्मचारी हैं, जो नेताजी को ग्राम प्रधान से लेकर विधायक-सांसद बनाने के लिए भयंकर जाड़ा, गर्मी और बरसात में भी रात-बिरात, दिन-दोपहर कभी भी अपने बूढ़े और बीमार मां-बाप, रोते-बिलखते दुधमुंहे बच्चों और बेटियों-बहनों को अकेला छोड़कर घर से दूर-दराज के इलाकों में चुनाव डयूटी करने जाते हैं… वहां कोई भी संविदा कर्मी या आउटसोर्सिंग कर्मचारी काम नहीं आता है। सरकारी सेवा सहित समाज के प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्ट और कदाचारी व्यक्तियों की मौजूदगी से तो इंकार नहीं किया जा सकता है लेकिन सरकारी अधिकारियों के एक संगठन का प्रतिनिधित्व और नेतृत्व करने के नाते मुझे यह बात समझ में नहीं आती है कि यदि सरकारी अधिकारी और कर्मचारी शत-प्रतिशत भ्रष्टाचारी हैं तो उनके राजनीतिक मुखिया किस आधार पर स्वयं के ईमानदार, बेदाग और साफ़ सुथरा होने का दावा करते हैं ?
कोई माने या न माने, लेकिन नई पेंशन स्कीम लागू होने के बाद सरकारी सेवा में आने वाले लाखों नौजवान अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए उनके वेतन-भत्ते और पेंशन की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बन गया है। यह एक कटु सत्य है कि राजनीतिक दल और नेता जिस तरह से कर्मचारियों के वेतन, मंहगाई भत्ते और तमाम अन्य भत्तों को “गांव भर की भौजाई” समझकर जब जी चाहे, छेड़खानी करते रहते हैं, उससे यह लाखों सरकारी अधिकारी-कर्मचारी और उनके परिवार के सदस्य आहत होते हैं क्योंकि यही वेतन-भत्ते उनकी आजीविका के साधन हैं और इन्हीं के जरिए वो अपने माता-पिता, भाई-बहन और बच्चों के सपनों को पूरा करने का सपना देखते हैं। इन नौजवान अधिकारियों और कर्मचारियों का मानना है कि वह कर्मचारी होने के साथ-साथ मतदाता भी हैं और मतदान करते समय अपने हितों की रक्षा के लिए वह अपने मन की बात सुनेंगे। सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों में इस बात की भी चर्चा है कि अब, जबकि पुरानी पेंशन नीति को समाप्त करके नई पेंशन स्कीम लागू करने के बाद सरकारी सेवा में आने वाले लोग शनै: शनै: सेवानिवृत्त होने लगे हैं, इस नई पेंशन स्कीम की पोल खुलने लगी है, जटिलताएं सामने आने लगी हैं, सब्जबाग सूखने लगे हैं और राजनीतिक दलों व नेताओं के इस निर्णय के पीछे का काला सच भी उजागर होने लगा है। इस नई पेंशन स्कीम से वो अनगिनत बेरोजगार भी प्रभावित हैं जो सरकारी सेवा में आने के लिए देश के तमाम हिस्सों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। सन् 2005 के बाद पहली बार यह मंज़र देखने को मिल रहा है कि किसी आम चुनाव में सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों द्वारा नई पेंशन स्कीम को समाप्त करने और पुरानी पेंशन व्यवस्था बहाल करने की मांग पर राजनीतिक घोषणाएं हो रही हैं जिनकी सच्चाई भविष्य के गर्भ में है। फिलहाल, इस प्रकार की राजनीतिक घोषणा लाखों सरकारी कर्मचारियों की शुरुआती सफलता कही जा सकती है लेकिन इन लाखों नौजवानों, सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को भी यह हक़ीक़त समझना होगा कि संसदीय लोकतंत्र में वह आम जनता की सेवा के लिए चुने जाने वाले एक लोक सेवक हैं और उनका भविष्य भी आम जनता ही तय करती है…अब भविष्य में इन सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों और इनके परिवार को पुरानी पेंशन या पारिवारिक पेंशन का लाभ मिलेगा अथवा नहीं, यह तो आम चुनाव के मतदान और मतगणना के परिणाम घोषित होने के बाद ही तय होगा।