🛑रिपोर्ट नरेश सैनी

🟥मथुरा। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने एक विस्तृत आदेश जारी करते हुए धारा 41 ए में स्पष्ट विधि व्यवस्था जारी की गई है कि जिन अपराधों में सात वर्ष के कारावास की सजा का प्रावधान है उनमें पुलिस गिरफ्तारी नहीं कर सकती है लेकिन पुलिस तो आखिर पुलिस ही है उसे सिर्फ अपने हित और स्वार्थ पूर्ति से मतलब रहता है और सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ना जैसे शगुल बना लिया है जिसे चाहे उसे गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश कर देती है और न्यायिक अधिकारियों द्वारा पुलिस द्वारा प्रस्तुत रिमांड को बिना जांचे परखे सीधे

 

 

कारागार भेजकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना करने के खुद भी दोषी बन रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट आदेश के बाद हाई कोर्ट ने पुलिस और ट्रायल कोर्ट को सर्कुलर जारी किया है कि सात साल से कम सजा के मामलों में गिरफ्तारी से बचा जाए। ऐसे मामलों में नोटिस दिया जाए। गिरफ्तारी करना जरूरी भी है तो पहले पुलिस चेकलिस्ट बनाकर संबंधित कोर्ट में प्रस्तुत करे। कोर्ट गिरफ्तारी पर निर्णय लेगी। न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने यह निर्देश दिया है। पीठ ने कहा है कि पुलिस अधिकारियों को पहले सीआरपीसी की धारा 41 के तहत गिरफ्तारी की आवश्यकता को लेकर पूरी तरह संतुष्ट हो जाना चाहिए। पीठ ने यह निर्देश वैवाहिक विवाद मामले में झारखंड हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया है। बता दें कि मोहम्मद असफाक आलम के खिलाफ उसकी पत्नी ने वैवाहिक विवाद का मामला दर्ज कराया था। इसमें में झारखंड हाईकोर्ट ने पति को अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया था। अपील करने वाले पति ने अपने पक्ष में दलील दी कि गिरफ्तारी का प्रानधान होने का अर्थ यह नहीं है कि हर मामले में गिरफ्तारी जरूरी है। इसके बाद शीर्ष कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए मोहम्मद असफाक आलम को जमानत दे दी। साथ ही शीर्ष कोर्ट ने अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य के मामले में जमानत देते समय जारी किए गए अपने निर्देशों को फिर से बताया। ये निर्देश जारी करते समय शीर्ष कोर्ट ने कहा कि हमारी कोशिश यह सुनिश्चित करना है कि पुलिस अधिकारी आरोपियों को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार न करें। साथ ही मजिस्ट्रेट लापरवाही से और मशीनी तरीके से हिरासत को अधिकृत न करें।शीर्ष अदालत ने कहा है कि विभिन्न हाई कोर्ट ऐसे अपराधों से निपटने वाले सत्र न्यायालयों और अन्य सभी आपराधिक न्यायालयों द्वारा पालन किए जाने के लिए दिशानिर्देश तैयार करें। इसी तरह सभी राज्यों में पुलिस महानिदेशक यह सुनिश्चित करेंगे कि इन निर्देशों के संदर्भ में सख्त निर्देश जारी किए जाएं। पीठ ने कहा कि इन निर्देशों का पालन आठ सप्ताह के भीतर किया जाए।
पीठ ने कहा कि सभी राज्य सरकारों को अपने पुलिस अधिकारियों को निर्देश देना होगा कि अगर कोई मामला आईपीसी की धारा 498-ए के तहत या दहेज उत्पीड़न के तहत दर्ज किया गया है तो पुलिस अधिकारी स्वत: ही आरोपी की गिरफ्तारी नहीं करें। ऐसा तभी किया जाना चाहिए जब मामले को देख रहे अधिकारी गिरफ्तारी की आवश्यकता के बारे में संतुष्ट हों। यह दिशा-निर्देश उन मामलों में भी लागू होंगे जिनमें अपराध की सजा सात साल या उससे कम की कैद होती है।
वैसे तो समूचे उत्तर प्रदेश की पुलिस सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए सुप्रीम कोर्ट की अवहेलना करते हुए रिमांड मंजूर कराकर गिरफ्तारी कर न्यायिक अधिकारियों से अनुमति लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए अवहेलना करने में लगी हुई है लेकिन इसका ज्वलंत उदाहरण गोवर्धन पुलिस में सरेआम देखने को मिल रहा है लेकिन गोवर्धन पुलिस यह भूल रही है कि अगर गोवर्धन पुलिस की करतूतों को लेकर अगर कोई सिरफिरा माननीय सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने को मजबूर हो गया तो जहां गोवर्धन पुलिस को फजीहत झेलनी पड़ेगी उसके साथ साथ न्यायिक अधिकारियों से लेकर सरकार तक से सवाल जवाब खड़े हो जाएंगे और स्थिति भय से भयाभव हो सकती है।