🛑गोरखपुर
व्यक्ति और कवि रूप में
लेखक- शशिबिन्दु नारायण मिश्र
साहित्य में मौलिक सर्जकों के लिए सृजन हमेशा चुनौती भरा काम होता है। यह सभी जानते हैं कि रचना का क्षण विशेष क्षण होता है। इस विशेष क्षण में रचनाकार कुछ नया तलाशता है। तलाश कभी पूरी होती है तो कभी नहीं भी।

भरसक मौलिक सर्जक यह चाहता है कि वह नये विषय पर लेखनी चलाए, जिस पर या तो लिखा ही नहीं गया है या बहुत कम लिखा गया है। इस दृष्टि से नयी कविता के प्रमुख कवि डॉ जगदीश गुप्त के एक गीत की दो पंक्तियाँ यहाँ उल्लिखित करना जरूरी लग रहा है —
कवि वही जो अकथनीय कहे
किन्तु सारी मुखरता के बीच मौन रहे।।”
स्मृतियों के आकाश में उड़ते हुए आज भोजपुरी के एक ऐसे ही प्रतिभाशाली दिवंगत कवि प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ के व्यक्तित्व और कृतित्व पर कुछ विचार करने और कुछ लिखने का मन हो रहा है , जिनकी भोजपुरी में अनेक समर्थ रचनाओं पर गोरखपुर के किसी बड़े साहित्यकार/गद्यकार/आलोचक/सम्पादक की नज़र कभी गयी ही नहीं और यदि गयी भी हो, तो किसी ने कभी कुछ लिखा नहीं।

ठीक इसी प्रकार के चिन्तन और भाव के आगोश में आकर आज से लगभग 25 वर्ष पहले ‘अञ्चल-भारती’ त्रयमासिक के सम्पादक डॉ जयनाथ मणि त्रिपाठी के विशेषाग्रह पर मनीषी रचनाकार पं. गणेश दत्त मिश्र ‘मदनेश’ पर एक संस्मरण लिखा था, जिसे उन्होंने सहर्ष प्रकाशित कर लिया था। ‘मदनेश’ जी की चर्चा फिर कभी………..।

प्रभाकर जी खाँटी भोजपुरी के कवि और आदमी थे। बातचीत, खान-पान, रहन-सहन सब में और कविता में तो थे ही।
“केहू के मड़ई में बरखा टप- टप घुड़दौड़ मचावत बाs।” उक्त काव्य पँक्ति एक बार अख़बार में ‘हेडिंग’ बनी थी। क्षेत्रीय काव्यगोष्ठी में जीवन में दैन्य भरी अभावग्रस्तता को उद्घाटित करती हुई यह कविता कवि प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ ने पढ़ी थी । ‘भगवान केs चिट्ठी’ शीर्षक की इस कविता को जब वे व्यंग्यात्मक हाव-भाव में पढ़ते थे तो श्रोता बहुत चाव से सुनते थे। यहाँ पर पूरी कविता का आनंद लें —
“संसार के मालिक हे भगवन ! तूँ समदरसी कहलावेलs/
सोगहग ,आधा-भुरकुसुनी दे लइकन के खूब भुलवावेलs / केहू के गद्दा गड़ेला, केहू तरई के तरसे ला / केहू कौड़ी के महँग भईल, केहू के अन-धन बरसे ला / ….. … …/ केहू कारे में सरकि-सरकि महलन में रास रचावत बाs / केहू के मड़ई में बरखा टप-टप घुड़दौड़ मचावत बाs / ….. ….. …. / केहू के लइका गजिया के नसबंदी पात्र बनावे लs / केहू के एगो तेनुआ खातिर सोरह देउकुर पूजवावे लs / ई कइसन समता लउकत बाs, केहू हेंह करे, केहू ठउकत बाs / समदर्शी बापे के बेटा,एक लोटत बाs एक छउकत बाs।।”

अमीरी-गरीबी और सामाजिक विषमता पर हिन्दी में और भोजपुरी में भी बहुत कविताएँ लिखी गयी हैं, लेकिन ईश्वर को जिम्मेदार मानते हुए इतनी सपाट, स्पष्ट और दिल को छूने वाली कविताएँ कम लिखी गयी हैं। यह कवि-मन का सच्चा दर्द है। कविता समाप्ति पर मैंने प्रभाकर जी से कहा था कि -“बरखा तो वर्षा का अपभ्रंश है और वर्षा को हिन्दी में स्त्रीलिंग में प्रयुक्त किया जाता है और आपने बरखा को पुलिंगवत् प्रयुक्त किया है, यहाँ लिंगत्व दोष है।” तो उन्होंने कहा था

कि -“ए बाबू ! बोलल जाला तs अइसे, यहाँ तुहार व्याकरण नाहीं लागू होई।” सच में मैंने ध्यान दिया तो ‘बरखा’ को भोजपुरी अञ्चल में व्यवहार में वैसे ही प्रयुक्त किया जाता है।
गाँवों में अधिकतर लोगों के घर छप्पर (मड़ई) के ही होते थे या बहुत हुआ तो खपरैल के। बरसात के दिनों में मूसलाधार बारिश से चूती हुई मड़ई में लोगों की दुर्दशा का कवि ने जीवन्त चित्रण किया था।
इस कविता को उन्होंने शायद 1987-88 में लिखा था।

शायद वर्ष 1991 या 1992 के अगस्त महीने की बात है। हम सबने मिलकर एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया था। अख़बारों के लिए गोष्ठी की रिपोर्टिंग मैंने ही की थी, लेकिन अख़बारों ने पूरी रिपोर्टिंग बदलकर अपने ढंग से छापा था । तारकेश्वर बाजपेई, रामनवल मिश्र, प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ आदि हिन्दी / भोजपुरी के मजे हुए बड़े कवियों के साथ तमाम उदीयमान कवि भी उनके सानिध्य में काव्य-गुण सीख रहे थे। 1990-1991 से हम लोग अपने क्षेत्र में लगातार गोष्ठियाँ करते रहे। मुझे भी शुरू से ही लिखने का शौक रहा है, साहित्य का संस्कार बचपन में परिवार से ही मिला था।

इसलिए क्षेत्र में जो भी साहित्य-सेवी या साहित्य-प्रेमी थे, उन सबसे आसानी से जुड़ाव हो गया था। प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ की व्यंग्य रचनाएँ सीधे मन को छूती हैं, पर आहत नहीं करती हैं, बल्कि उनसे हास्य पैदा होता है। इनकी कविताओं में स्पष्टता के साथ विजन हर जगह मौजूद हैं। भोजपुरी के सशक्त रचनाकार और आकाशवाणी गोरखपुर के कार्यक्रम अधिशासी रहे रवीन्द्र श्रीवास्तव उर्फ़ जुगानी भाई एक मुलाक़ात में कहते हैं कि -“त्रिलोकी नाथ उपाध्याय, कृष्ण मुरारी शुक्ल ‘भकोल’ और प्रभाकर धर दुबे ‘लण्ठ’ आदि भोजपुरी के ऐसे रचनाकार थे, जिनकी कविताओं से मंचों को हास्य के माध्यम से एक नयी दिशा मिलती थी, इनकी

कविताओं में सस्तापन नहीं था, गम्भीरता थी।” आगे जुगानी भाई कहते हैं कि -“आकाशवाणी में ‘लण्ठ’ जी जब छड़ी लिए प्रवेश करते थे, तो दूर से ही हँसते हुए हमसे कहते थे कि देखिए मैं आज एक नयी कविता लाया हूँ, तो मुझे अच्छा लगता था, आकाशवाणी में प्रभाकर धर को मैंने ही स्थापित किया।”
अगस्त 2002 की एक याद मन-मस्तिष्क में बार-बार कौंधती है। झँगहा पुलिस स्टेशन गेट के सामने एक कवि-सम्मेलन आयोजित किया गया था। निर्धारित तिथि से हफ्ते भर पहले से ही कवि रामनवल मिश्र जी और प्रभाकर धर जी ने वहाँ चलने के लिए बार-बार आग्रह किया था, लिहाजा मैं भी गोष्ठी में समय से पहुँचा था। काव्य-मंच पर कांग्रेस

पार्टी के बड़े राजनेता और पूर्व राज्यपाल रहे रहे महावीर प्रसाद मुख्य अतिथि के रूप में विराजमान थे । काव्य-मंच का बहुत ही सफल संचालन रवीन्द्र श्रीवास्तव उर्फ जुगानी भाई कर रहे थे। मंच पर रामनवल मिश्र, प्रभाकर धर लण्ठ , जयप्रकाश नायक, शिवपूजन पटेल आदि दर्जन भर लोग मौजूद थे। 3-4 कवियों के काव्य-पाठ के बाद संचालक जुगानी भाई ने प्रभाकर धर ‘लण्ठ’ को बड़े ही रोचक ढंग से काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित किया। प्रभाकर धर के खड़े होते समय ही जुगानी भाई तथा बगल में बैठे जयप्रकाश नायक ने बहुत झटके से उनके कान में कुछ फुसफुसा दिया। फुसफुसाहट में शायद राजनैतिक व्यंग्यात्मक कविता पढ़ने का आग्रह किया गया था। प्रभाकर धर को जुगानी भाई ने अपनी इन काव्य-पंक्तियों से बुलाया था -“दिल्ली में पाथर, पथरे कs जंगल, जंग्गले में डेकरत केतना आदमखोर / मुअल शिकारे पर छीना झपट्टी, गुर्री-गुर्रा ,तोर-मोर / घासी में लुकववले खरहा कs कान, केहू तs बनी आजु इनकर मेहमान।” बस क्या था,

प्रभाकर धर को संकेत मिला और जुगानी भाई से साहस पाकर तत्क्षण राजनैतिक छल-छद्म के विरुद्ध प्रभाकर धर ने जो हास्य-व्यंग्य कविता पढ़ी —
“कुछु मन में उथल-पुथल उठल , कइसे दुनिया में हम जीं / नखरा-तिल्ला के लुगरी के, कवने तागा से हम सीं / ………. …… / सीधवा के मुँह कुक्कुर चाटे, केरा के चोख खपिल्ला बाs / ओ के केहू पूछी नाहीं, जेकरे नs एक्को बिल्ला बाs / हमरे सुभाव के मनई के एहवाँ न तनिक गुजारा बाs / जे लाम-काम से फरक रही, ओकर न केहू सहारा बाs / बड़मनई के परिभाषा भी, सीधा से उलटा हो गईल / जे जेतने तिकड़म फिट्ट करे,ऊ ओतने बड़मनई हो गईल / चमकत लिलार पर टीका, गटई में लटकत माला हो / ऊप्पर से एकदम लक्क-दक्क भीतर से चाहे काला हो / …. …. …./ ओही के आजु जमाना बाs , ओही के बाs उज्जर चरित्र / कुछु बाति समझ में आवत नाहीं, कइसन आईल ई जुग विचित्र / ऊहे एमेल्ले में जीती , ऊहे एम्पी बनि के जाई / गुलगुलवा सोफ़ा पर बइठल, ऊहे माकुर- माकुर खाई ।” प्रभाकर धर की कविताओं

में सामाजिक – राजनैतिक विषमता का वास्तविक चित्रण मिलता है। प्रभाकर धर की कविता ने बड़ी गहरी चोट की थी। मुख्य अतिथि महावीर प्रसाद तिलमिलाहट के साथ मंच से कुछ बड़बड़ाते हुए भाग खड़े हुए थे, तुरन्त मंच से चल दिए थे। यह अप्रत्याशित घटना थी, लेकिन मंच और कवियों पर इसका कोई असर नहीं हुआ।
मैं स्नातक में पढ़ रहा था, मई या जून का महीना था, प्रभाकर जी मेरे घर आये थे। घर के बाहर छप्पर में बइठकी जमी।

आवभगत के बाद पिता जी ने कहा कि -“अच्छा , प्रभाकर धर ! एक ठो कविता सुनावs ।” उन्हें मेरे यहांँ देखकर मेरे घर के अगल-बगल के दो-चार लोग आ ही जाते थे। मेरे सहोदर भाई लोग थे ही, पंडी जी, खजांची सेठ , भिरगू और आफतहरन भी आ गये थे, बटोही और रामसकल पहले से ही बैठे थे। प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ ने जो कविता पढ़ी थी, उसकी कुछ पंक्तियाँ अब तक नहीं भूली हैं —
“चोर केनी चोर जो कहबs , कुपदी केनी कुपदी /
राहे-बाटे घेरि के कतहूँ, पइबs दस गो लबदी / ….. ….. …/ शासन में जे चिपकल बाटे, दूध मलाई खींचे / कुर्सी के जे ना पवले बाs, दूनो हाथे के मीजे / पढ़ि -लिखि के जे घूमत बाटेs, नोकरी जे ना पवलस / चबदल गोड़े में पैजामा ,कुर्ता एक सियवलस / चौराहा पर गोलि बान्हि के, चाय-पकौड़ी काटेs /
मुह-दुबरन के देखिs के कतहूँ, कुकरे अइसन डाँटेs / चटकी नाव, भाव बढ़ि जाई , नेता जी कहलइबs / सरकारी दुकान से पहिले चीन्नी-तेल तूs पईबs ।”
सुनकर हम सभी हँसते-हँसते लोटपोट हो गये थे। बटोही जैसे अनपढ़ भी कविता का बखूबी आस्वाद ले रहे थे। कविता की सार्थकता तो यही है। अन्तिम दशक में उभरती हुई क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के प्रभाव से गाँव-गाँव में ऐसे छुटभैय्ए नेता

उभरते हुए देखे जाते थे, उनसे पूरा समाज धीरे धीरे प्रभावित हो रहा था, परेशान भी और आजकल तो उसकी कोई इंतहा ही नहीं है । कवि ने उस विषय को उठाया और अपने काव्य-कौशल से उसमें प्राण डाल दिया था। कवि ने इस कविता में सीधे-साधे नैतिक लोगों का ऐसे वातावरण में जो हश्र होता है,उसका चित्रण किया है,जिसे आजकल बखूबी देखा जा सकता है, आगे कवि कहता है–
“जे आपन ई लोक बनाई, ऊ परलोक बिगारी / लड़िके रोइहें भूजा बेगर, मेहरी देई गारी।”
समाज में नेताओं द्वारा अपने घृणित स्वार्थ के लिए पैदा की जा रही अराजकता,जिसे बखूबी आप आजकल देख रहे हैं,इस यथार्थता का चित्रण करने से भी कवि तनिक भी नहीं चूकता है –“नेति धरम ताखे पर धइके, दूनों हाथे लूटs / कवनो माल कहीं जो देखs , बाझे अइसन टूटs / लूट खसोट जहाँ तक सपरे, खूब ठाठ से करs / देवी-देवता के किरिया खइले में ,तू तनिको न डरs / उज्जर बनि के घूमs बजारे, मीठ-मीठ बतिआवs / कहवाँ कइसे माल फँसी, अइसल जाल बिछावs / पहिले कs ई रहल कहानी, साँच के आँचि न लागी /
आजु के युग में साँच भुजाई, झुठवे रही बेदागी।”
आज की सामाजिक स्थिति का जीवन्त चित्रण,वास्तविक चित्रण। अपनी सरलता, स्पष्टता और विजन की कविता।
भोजपुरी में सहज, सरल और स्पष्ट कथ्य के साथ समाज को बड़ा संदेश दिया जा सकता है , यह क्षमता प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ में हर जगह मिलती है।
प्रभाकर जी मंच पर हों या गाँव-घर में दो-चार लोगों के बीच हों, सहज होकर उन्मुक्त भाव से कविताएँ सुनाते हुए श्रोताओं के मन से जुड़ते थे। प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ भोजपुरी के बड़े हास्य-व्यंग्यकार थे।

प्रभाकर धर ‘लण्ठ’ जी के 12 फरवरी 2022 को दिवंगत हो जाने पर उनके पुत्रों द्वारा वर्ष भर बाद पुण्य तिथि मनाने की योजना थी । यह आलेख गत नवम्बर / दिसम्बर में ही लिखा जाना था, उनके बड़े पुत्र अरविन्द उर्फ़ मन्नन ने बहुत आग्रह किया था, मन्नन इसके लिए 3-4 बार मुझसे मिले भी। वे प्रभाकर जी की अप्रकाशित कविताओं का संग्रह निकलवा रहे थे । उनकी हार्दिक इच्छा थी, कि उसमें मेरा भी आलेख हो, उन्होंने उनकी चुनी हुई कुछ कविताएँ भी मुझे दी थी।
प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ जी की मृत्यु के साल भर बाद उनका ‘मन की व्यथा’ नामक भोजपुरी काव्य- संग्रह उनके लड़कों के सद्प्रयत्नों से प्रकाशित हो चुका है, पर उसमें भाषा और वर्तनी सुधार की बहुत गुंजाइश है।
बचपन से लेकर अब तक प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ जी के यहाँ मांगलिक और साहित्यिक कार्यक्रमों के मद्देनजर मैं सैकड़ों बार गया हूँ और वह मेरे घर आये थे। मेरे घर किसी भी आयोजन में वह न आये हों अथवा मैं उनके यहाँ न गया होऊँ , ऐसा कभी नहीं हुआ था।
पिछले साल नवम्बर / दिसम्बर में चाहकर भी उन पर कुछ नहीं लिख सका। दरअसल हर चीज़ का एक समय होता है , यह तय है, यह ईश्वरीय विधान है कि कोई भी कार्य अपने निश्चित समय पर ही होगा। जगत् में सब कुछ पूर्व नियोजित है, ईश्वराधीन है। बाद में आठ जनवरी 2023 में मेरे घर पर मिलने आये प्रतिष्ठित गीतकार जयप्रकाश नायक से प्रसंगवश चर्चा होने पर नायक जी ने भी मुझसे कहा कि “आप बताते तो हम भी प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ पर कुछ लिखे होते, क्योंकि लण्ठ जी के साथ मैंने गाँव से लेकर शहर तक बहुत बार काव्य-मंच साझा किया है।” तब तक पुस्तक छप चुकी थी।
बहरहाल, गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने रामचरितमानस, बालकाण्ड में देवाधिदेव शिव जी से कहलवाया है –
“होइहैं सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तरक बढ़ावहिं साखा।।”
ऊपर कह आया हूंँ कि प्रभाकर जी से कई पीढ़ियों से जुड़ाव रहा है। प्रभाकर जी की तरह उनके पिता विन्देश्वरी धर द्विवेदी का भी मेरे प्रपितामह पं. गणेश दत्त मिश्र ‘मदनेश’ के पास आना- जाना होता था।

‘लण्ठ’ जी से जब पहली मुलाकात हुई, तो उन्हें कवि रूप में ही जाना था, छठवीं कक्षा का विद्यार्थी था, स्वावलम्बी इण्टर कॉलेज बिशुनपुरा गोरखपुर में राजनारायण सिंह की जगह ‘म्युचुअल-ट्रांसफर’ से रवीन्द्र सिंह नये- नये प्रिंसिपल होकर आजमगढ़ से आये थे। रवीन्द्र सिंह जी की एक प्रिंसिपल के रूप में खासियत यह रही कि क्षेत्र के सभी प्रतिष्ठित और पढे-लिखे लोगों से उनका मिलना-जुलना रहता था, सबको जाना और विद्यालय पर ससम्मान बुलाया भी। बाद में स्थितियाँ कुछ भिन्न हो गयीं, जिसकी चर्चा यहाँ अनपेक्षित है।

कवि प्रभाकर धर ‘लण्ठ’ को रवीन्द्र सिंह जी ने अपने कार्यकाल के प्रथम वर्ष में विद्यालय पर बुलवाया और 15 अगस्त को स्वतन्त्रता दिवस पर उनका शानदार काव्य- पाठ विद्यालय पर हुआ था।
‘लण्ठ’ जी ने 15 अगस्त को स्वतंत्रता-दिवस और बलिदानियों पर कविता पढ़ने के बाद एक कविता विद्यालय के संघर्षशील मनीषी मूल संस्थापकों पर भी पढ़ी थी, जो तत्कालीन व्यवस्था से जुड़े लोगों को अच्छी नहीं लगी, अतः फिर कभी अतिथि कवि के रूप में उन्हें जीवन- पर्यन्त विद्यालय पर आमंत्रित नहीं किया जा सका । कभी-कभार वे अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और विद्यालय में साहित्य-प्रेमी लोगों से मिलने- जुलने के सिलसिले में विद्यालय पर आते रहे। विद्यालय के नवागत प्रधानाचार्य रवीन्द्र सिंह जी तत्कालीन परिचारक दयानन्द गौड़ को लेकर विद्यालय के सटे बगल के गाँव रानापार में उक्त विद्यालय के मूल संस्थापकों में से एक और विद्यालय प्रबंध कार्यकारिणी के प्रथम अध्यक्ष रहे मनीषी साहित्यकार पं. गणेश दत्त मिश्र ‘मदनेश’ के यहाँ स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर स्वयं चलकर मिलने गये थे , इसका मैं साक्षी रहा हूँ। विद्यालय पर आने के लिए आग्रह किया था, उस वक्त बाल्यावस्था में मैं भी वहाँ घण्टों बैठा रहा। ‘मदनेश’ जी अस्वस्थता के कारण विद्यालय नहीं जा सके थे

, उसके ठीक एक महीने बाद ‘मदनेश’ जी की सितम्बर महीने में 87 वर्ष की आयु में अकस्मात मृत्यु हो गयी थी। रवीन्द्र सिंह जी का यह स्वविवेक था, यह उनका बड़प्पन भी कि वह क्षेत्र में गणमान्य लोगों के यहाँ स्वयं गये और सबको विद्यालय पर सादर बुलाया। उसके बाद के कुछेक प्रधानाचार्यों ने स्वविवेक से इस परम्परा को कुछ हद तक विद्यालय में निभाया । प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ को पहली बार नजदीक से, मंच पर गौर से अपने विद्यालय पर ही सुना था। दो भोजपुरी कविताएँ सुनाईं थीं, दोनों अच्छी थीं। प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ जी बहुत बार बड़े मंचों पर बड़े कवियों पर भी अपनी दुर्लभ हास्य -व्यंग्य रचनाओं के सहारे भारी पड़ जाते थे। रवीन्द्र सिंह जी जब तक रहे,तब तक व्यक्तिगत रूप से प्रभाकर धर द्विवेदी से जुड़े रहे, प्रभाकर धर जी भी विद्यालय पर आते रहे, विशेष रूप से जब तक एकांकीकार और कहानीकार प्रभुनाथ सिंह ‘प्रजेश’ जी प्रधानाचार्य पद पर कार्यरत रहे।
बिशुनपुरा में मेरे अध्यापक होने पर प्रभाकर जी ने बहुत बार कहा था, कि “ये बाबू शशिबिन्दु ! स्कूल पर एक ठो कवि-सम्मेलन करवा दs।” तत्कालीन प्रिंसिपल प्रभुनाथ सिंह ‘प्रजेश’ जी से भी उन्होंने अनेक बार कहा था, लेकिन हम लोगों की विद्यालय में एक सीमा थी और है। इसके लिए मेरे सामने उन्होंने शिकायत भरे लहजे में आक्रोश भी व्यक्त किया था। प्रभाकर धर द्विवेदी का उपनाम ‘लण्ठ’ कब और कैसे पड़ा ? प्रभाकर जी इसकी चर्चा के क्रम में कवि परमात्मा मणि ‘पतंग’ को जिम्मेदार ठहराते हैं। किसी बड़े काव्य-मंच पर प्रभाकर जी की ‘वसंत ऋतु ‘ वाली कविता पर परमात्मा मणि ‘पतंग’ ने उन्हें पहली बार मजाक में ‘लण्ठ’ शब्द से सम्बोधित किया था, प्रभाकर धर के एतराज़ जताने पर उन्होंने समझाया था, फिर सभी ने हमेशा के लिए ‘लण्ठ’ उपनाम रख दिया। सबके द्वारा बार-बार लण्ठ कहे जाने पर प्रभाकर धर ने ‘लण्ठ’ शब्द से अपने को जोड़ते हुए ‘लण्ठ’ पर ही छः पंक्तियों की एक आत्मकथ्यात्मक रोचक कविता लिखी थी, जो कि पूरे समाज और व्यवस्था का सामयिक यथार्थ है—
“लण्ठ-लण्ठ काs कइले बाटs , लण्ठ बनल काs बाऊर बाटेs , लण्ठेs सज्जी देश चलावें , लण्ठेs सज्जी नियम बनावें , सुख-सुविधा आ मान बड़ाई, एहवाँ सज्जी लण्ठेs पावें , सज्जन बनीs ते चाटी सतुआ, कब्बो उखरले न उखरी बथुआ।”
उन्हीं द्वारा समय -समय पर बताए गए उनके परिचय को यहाँ प्रस्तुत करना आवश्यक लग रहा है। प्रभाकर जी मेरे पिता जी (श्री जगदीश नारायण मिश्र) से उम्र में करीब दो साल छोटे थे । प्रभाकर धर की छठवीं कक्षा से आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई जनता विद्या विकास समिति बिशुनपुरा द्वारा संचालित विद्यालय में हुई थी।शुरुआती दिनों में उक्त विद्यालय कक्षा 6 से कक्षा 8 तक ही स्थापित हुआ था और रानापार में स्थित तत्कालीन बच्चा बाबू की छावनी में वह विद्यालय 1951 से 1954 तक चला था।

उक्त जनता विद्या विकास समिति कार्यकारिणी के प्रथम अध्यक्ष पं. गणेश दत्त मिश्र ‘मदनेश’ और प्रथम मन्त्री / प्रबन्धक पं. वंशराज त्रिपाठी थे, इन्हीं लोगों के आग्रह पर सूर्य वीर विक्रम बहादुर सिंह उर्फ बच्चा बाबू (बरही स्टेट) ने अपनी छावनी पर विद्यालय चलाने की अनुमति दी थी। प्रभाकर धर के पिता स्वर्गीय विन्देश्वरी धर द्विवेदी उस समय गजाईकोल न्याय पंचायत के सरपंच हुआ करते थे, सरार के ही नहीं, क्षेत्र के प्रतिष्ठित व्यक्ति भी थे और जनता विद्या विकास समिति की प्रथम कार्यकारिणी के भी सक्रिय सदस्य थे , उसी गाँव के प्रतिष्ठित पं. जगत नारायण धर द्विवेदी भी विद्यालयी प्रबंध कार्यकारिणी के सक्रिय सदस्य थे। पं. जगत नारायण धर द्विवेदी की भी मेरे परिवार के साथ काफी निकटता रही ।
प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ का जन्म 1944 में सरार में विंदेश्वरी धर द्विवेदी के यहाँ हुआ था। प्राथमिक शिक्षा थुन्ही बाजार से, आठवीं कक्षा तक की शिक्षा बिशुनपुरा से हुई, उसके आगे की पढ़ाई कौड़ीराम से हुई थी।
प्रभाकर धर जी बताते थे, कि जनता विद्या विकास समिति द्वारा स्थापित विद्यालय में छठवीं कक्षा में पढ़ने के लिए प्रबन्धक वंशराज त्रिपाठी जी छात्रों को विद्यालय से जोड़ने के सम्पर्क अभियान में उनके घर जाकर उनके पिता विन्देश्वरी धर जी से कहा था कि -“रउरे पाचन अपने लड़िकन के एह स्कूले में पढ़े के भेजीं, जेसे देखी-देखा सब अपने लड़िकन के पढ़े के भेजी।” लिहाजा इस तरह के अनेक सद्प्रयत्नों से विद्यालय को चलाया जा सका था। उक्त विद्यालय में 1951 में छठवीं कक्षा में प्रथम बैच के छात्र रहे ठकुराई मुण्डेरा निवासी मार्कण्डेय पाण्डेय जी भी प्रभाकर धर जी की बातों की हृदय से पुष्टि करते हैं। प्रभाकर धर ने जीवन

के यथार्थ को नजदीक से देखा था, उसे भोगा था। बहुत ऊँची शिक्षा नहीं हो पायी थी, नौकरी भी स्थाई रूप से कहीं नहीं लग सकी थी। शरीर से भी वे बलिष्ठ नहीं रहे, खेती-किसानी में भी मेहनत नहीं कर पाते थे और उस समय खेती -बारी कभी उन्नत जीवन- शैली के लिए आय का साधन नहीं बन सकती थी। परिवार और बाल बच्चों के भरण पोषण का दबाव अलग से हमेशा रहा। इन परिस्थितियों में ऐसा सबके साथ हो सकता है। इन सब बातों का कवि-मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा था, उनके हर व्यवहार,भाषा और उनकी कविताओं में भी। उनकी आत्मकथात्मक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए , कवि अपना परिचय देने में भी कितना ईमानदार है —
“शिशु मंदिर के आचार्य हईं,सबके निगाह में आईलाs /
सम्मान बहुत बड़वर हउवे,तनखाहि पचासी पाईलाs /
चाहे-पानी के हो जाला,करजा – उधार ले खाईलाs/
हम कवन बाति केसे कहीं,कईसो-कइसो सरकाईला।”
कवि भावानुरूप उपयुक्त शब्द चयन में सदैव सजग रहता है। चूँकि पारम्परिक रूप में अपने पिता और परिवार की प्रतिष्ठा को देखते हुए उसे समाज में बरकरार रखने का दबाव प्रभाकर धर जी पर अलग से था, जिसे मैंने समय- समय पर उनसे मुलाकात

/बातचीत के दरम्यान महसूस किया है। पारिवारिक सम्बन्ध के नाते कभी- कभार मन की बात मुझसे कहते थे, लेकिन बाहर से उसे सभा- समाजों में प्रकट नहीं होने देते थे , कभी नहीं। समाज में अपनी ठसक कायम रखना चाहते थे , उनकी गर्व सूचक शारीरिक चेष्टाओं से और कविताओं से यह एहसास होता रहता था । भोजपुरी के शीर्षस्थ कवि रवीन्द्र श्रीवास्तव उर्फ़ जुगानी भाई उनके व्यक्तित्व के बारे में बताते हैं कि
-“लण्ठ’ जी की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि उन्हें हमने कभी चिन्तित नहीं देखा। व्यक्तिगत जीवन में भले ही वे कुछ आर्थिक रूप से परेशान रहे हों, लेकिन उसे कभी भी चेहरे या हाव-भाव से प्रकट होने नहीं दिया।”
प्रभाकर धर जी से जुड़ी अनेक स्मृतियाँ ,जो मन को कुरेदती रहती हैं — ‘लण्ठ’ जी से जुड़ी एक घटना- बात 30 जून सन् 1988 की है, मेरे विवाह का दिन था, एक जुलाई को जनवासा / शिष्टाचार सभा का आयोजन था। उस समय तक वैवाहिक समारोहों में दूसरा दिन विशेष महत्त्व का होता था।

एक जुलाई 1988 को ही ग्राम पंचायतों का मतदान भी होना था। रानापार -डुमरी और आसपास के सैकड़ों बराती अपने-अपने गाँव में बरात से ही सुबह मतदान करने गये और फिर अपराह्न में बरातियों के भोजन के समय बराती उपस्थित हुए। सायं काल में बहुत ही शानदार शिष्टाचार- सभा / जनवासा का आयोजन हुआ। कुछ ने मांगलिक श्लोकों से, कुछ ने काव्य-पाठ द्वारा, कुछ ने गीतों के माध्यम से, कुछ ने सेहरा गाकर वर-वधू के उज्जवल भविष्य की मंगल कामना की थी। कवि प्रभाकर धर ‘लण्ठ’ जी ने वर-वधू के गाँव, परिवार और नाम को जोड़कर शानदार, मन को विह्वल करने वाली कविता पढ़ी थी।

मेरे सहोदर कौस्तुभ द्वारा जनवासे का शानदार ढंग से संचालन करने के कारण शिष्टाचार- सभा में चार-चाँद लग गया था। अपने ही विवाह की शिष्टाचार-सभा में ‘लण्ठ’ जी की काव्य-प्रतिभा का मैं दूसरी बार दर्शन कर रहा था । उभय पक्ष के बहुतेरे बरातियों ने प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ जी को पहली बार सुना था और लोग बखूबी उनसे प्रभावित हुए थे । जनवासे में उपस्थित विवाह के अगुआ और उस क्षेत्र के अत्यन्त प्रतिष्ठित व्यक्ति ग्राम बैदा-निवासी झारखण्डेय शुक्ल जी (मेरे सगे मामा) ‘लण्ठ’ जी की स्वरचित आशीर्वादात्मक मांगलिक कविता से काफ़ी प्रभावित हुए और नकद पुरस्कार दिया , तो उनकी देखा-देखी बहुतों ने उनका अनुकरण कर प्रभाकर जी को पुरस्कृत किया था, उस जनवासे में प्रभाकर धर जी ने अपनी ‘वसंत’ वाली सर्वश्रेष्ठ कविता भी पढ़ी थी। वह जनवासा खूब जमा था। अब तो शिष्टाचार सभा / जनवासा अतीत का , इतिहास का हिस्सा हो चुका है। पढ़े- लिखे, आधुनिक और सभ्य समाज के लिए अब विवाह में जनवासा गैरजरूरी माना जाता है। उस समय के वैवाहिक समारोहों में शिष्टाचार

सभा के आयोजनों से एक बात का पता अवश्य चलता था कि वर और वधू पक्ष का पढ़े -लिखे लोगों से, विद्वान्- शिष्ट वक्ताओं से, कवियों से, अध्यापकों से जुड़ाव है अथवा नहीं, यदि है तो किस स्तर का ? उस समय विवाह समारोहों में वर-वधू दोनों पक्षों के मुखिया लोग समाज के पढ़े- लिखे लोगों से जनवासे में उपस्थित रहने के लिए खूब सिफारिश करते थे ,जो कि जनवासे में प्रभावकारी मांगलिक उद्बोधन दे सकें, ताकि उभयपक्ष की शोभा बढ़ सके । अब स्थिति इसके एकदम उलट है। अब तो यह देखा जाता है कि आगंतुक लोगों में कितने महँगी गाड़ियों वाले धनपशु हैं, बन्दूक, बोतल और बुलेट वाले हैं।
एक और अति विशिष्ट स्मृति मन-मस्तिष्क में कौंध रही है– 1996-1997 में क्षेत्र के लोगों ने मिलकर मनीषी साहित्यकार पं. गणेश दत्त मिश्र ‘मदनेश’ की पुण्यस्मृति में ‘मदनेश’ साहित्य- संस्कृति परिषद्’ का गठन किया था। जिसके तहत उस परिषद् से जुड़े लोगों के यहाँ हर महीने काव्य-गोष्ठी

/ साहित्यिक आयोजन होते थे। इसमें डुमरी के प्रसिद्ध भोजपुरी कवि रामनवल मिश्र, वीरेन्द्र प्रसाद मिश्र (सेवानिवृत्त अध्यापक), रामानुज मिश्र (सेवानिवृत्त अध्यापक) , सुग्रीव मिश्र (सेवानिवृत्त पूर्वोत्तर रेलवे), सरार से कवि प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’, विशुनपुरा से अमरनाथ निषाद, रानापार से रामदवन यादव, सिलहटा से जगदीश शर्मा आदि प्रमुख रूप से जुड़े थे । क्रम से सबके यहाँ हर महीने काव्य-गोष्ठी होती रहती थी। इससे नवोदित पीढ़ी के रचनाकारों का रचनात्मक परिष्कार और अभ्यास भी होता था। बकसूड़ी में देवीशंकर अवस्थी और उमाशंकर चंद, बौंठा में वरिष्ठ और शास्त्रीय कवि तारकेश्वर बाजपेई और उनके सानिध्य में काव्यगुर सीखने वाले ओमप्रकाश, सरार के ही आदित्य परमोज्ज्वल (गजाधर द्विवेदी) की भी समय- समय पर साहित्यिक कार्यक्रमों / गोष्ठियों में सक्रियता स्मरणीय है।
इसी क्रम में ‘मदनेश’ साहित्य -संस्कृति परिषद् ‘ के तत्वावधान में 08 दिसम्बर 1997 को एक भव्य साहित्यिक -सांस्कृतिक आयोजन स्वावलम्बी इण्टर कॉलेज बिशुनपुरा गोरखपुर में किया गया था। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में हिन्दी के सुविख्यात समालोचक एवं कथाकार डॉ. रामदेव शुक्ल जी पधारे थे । वैसा जीवन्त साहित्यिक -सांस्कृतिक कार्यक्रम फिर दोबारा उस विद्यालय पर केवल एक बार 2003 में आयोजित हो सका है। उक्त समारोह में पं. गणेश दत्त मिश्र ‘मदनेश’ जी के समुन्नत व्यक्तित्व और कृतित्व पर बरही इंटर कॉलेज के पूर्व प्रधानाचार्य आचार्य मदनमोहन राय, कवि प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ , कवि रामनवल मिश्र आदि ने बहुत ही सघन स्मृतियों के साथ शानदार और यादगार उद्बोधन दिया था । जहाँ तक मुझे याद है कि शिक्षक प्रसिद्ध नाथ मिश्र, नरेन्द्र प्रसाद मिश्र और तत्कालीन प्रबंधक रामसरिस यादव ने भी मंच से ‘मदनेश’ जी और कार्यक्रम को लेकर कुछ अच्छा उद्बोधन दिया था। कवि रामनवल मिश्र ने अपने उद्बोधन में जब कहा कि -मदनेश जी मेरे सहोदर विख्यात साहित्यकार डॉ रामदरश मिश्र के प्रारम्भिक साहित्यिक गुरु हैं।” तो डॉ रामदेव शुक्ल के मन में ‘मदनेश’ जी के बारे में गम्भीरता पूर्वक जानकारी लेने की उत्कण्ठा हुई थी।
‘मदनेश’ जी पर उक्त सभी के वक्तव्यों को सुनकर कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रोफ़ेसर शुक्ल जी ने ‘मदनेश’ जी की विशाल हृदयता और समुन्नत व्यक्तित्व से पूरे अञ्चल और उस ग्राम्य परिवेश को अविच्छिन्न रूप से जोड़ते हुए घण्टे पर का चिरस्मरणीय उद्बोधन दिया था। प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ जी जब अपनी रोचक शैली में ‘मदनेश’ जी से जुड़ी स्मृतियों को भावुक होकर सुना रहे थे, तो प्रोफ़ेसर शुक्ल जी लगातार उन्हें देख रहे थे ।

कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद प्रोफ़ेसर शुक्ल जी ने कवि प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ का हाथ थामकर उन्हें इसके लिए हृदय से बधाई और आशीर्वाद दिया था । उसी दिन रात्रि में भव्य कवि सम्मेलन भी आयोजित हुआ था। क्षेत्रीय कवियों के अतिरिक्त कृष्ण मुरारी शुक्ल ‘भकोल’, गाजीपुर से देवनारायण सिंह ‘राकेश’ आदि बड़े कवि मंच पर थे। हास-परिहास में प्रसंगवश कवि प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ और देवनारायण सिंह ‘राकेश’ के बीच अनेक हास-परिहास के क्षण आये थे, उससे कार्यक्रम काफ़ी रोचक और यादगार बन गया था।

उक्त आयोजन से जुड़े लोगों में कुछ रिटायर लोग थे और कुछ पूरी तरह से बेरोजगार, अतः वह आयोजन आगे नहीं बढ़ सका। असमय दम तोड़ गया।
प्रभाकर जी की मैंने सैकड़ों भोजपुरी कविताएँ पास बैठकर सुनी हैं, लगभग सभी कविताएँ सामयिक हैं और अनेक बहुचर्चित भी। प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ यथार्थ के कवि हैं, सहज और सम्प्रेष्य कवि हैं। प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ की निम्नलिखित कविताएँ मुझे विशेष रूप से प्रभावित करती हैं — ‘भगवान के चिट्ठी’ , ‘वर्तमान शिक्षा’, ‘अजुके जुग’, ‘सुखिया के चिट्ठी’, ‘गजपुर’, ‘गाय’, ‘गाँवे के ओर’, ‘वसंत ऋतु-1’, ‘वृक्षारोपण’, ‘बाल कविता’, ‘वसंत -2’, ‘अपनी व्यथा ‘, ‘लंठ’, और ‘आजादी पर दो मुक्तक’, । ‘वसंत-2’ कविता ही उनके लण्ठ उपनाम के लिए जिम्मेदार है, इसकी कुछ पंक्तियाँ देखिए –“हे वसंत ! तू आवेलs / सबके मन तूs भावेलs / कारन कवन कहs तू, विरही तन आगि लगावेलs /जबसे सरसों में फूल लगल, फागुन महीना नगिचाइल /तबसे सब मानि लिहल,कि वसंत ऋतु हs आइल / आमे के डारी में मोजरा, महुआ के पुनुगी गठिआइल /हर वृक्ष पुराना वस्त्र फेंकि,परिधान नया ले मुसकाइल / कोयल कs कू-कू तान सुना, पिक बयनी होश परावेलs / पपीहा कs पी-पी राग सुना, प्रियतम कs यादि जगावेलs / तूँ केहू के हउवs नाहीं, चाहे होखे नर या नारी / बुढ़वो वियाह के इच्छा ले,नाते-बाते से बतिआवें /आपन खेवट खाता देखा, कुछ नकद जमा भी बतलावें / हे बसंत ! तूँ का करबs , पानी में पाथर पँवरईबs/ई भजन करे के उमर हवे,कि घरे-घरे दउरईबs।।”
इस हास्य-व्यंग्य कविता में प्रकृति चित्रण भी देखते ही बनता है। प्रभाकर धर की भोजपुरी में कहीं भी अनगढ़ता नहीं दिखाई देती है और न तो कहीं काव्य-प्रवाह बाधित होता हुआ दिखता है। भोजपुरी भाषा पर भी उनका अधिकार है। इस कविता को जब प्रभाकर जी सुनाते, तो चाहे युवा हों, प्रौढ़ हों , वृद्ध हों, नर हों अथवा नारी हों, हर श्रोता के मन में गुदगुदी सी होने लगती थी।
‘आज़ादी’ पर अपने दो बेहतरीन मुक्तकों में देश की एकता को खंडित करने वाले तत्वों को सीख देते हुए अनेकता में एकता पर बल दिया है।
कोई अरबपति हो या दरिद्र हो,नून-तेल-रोटी तो सबको चाहिए। ‘वृक्षारोपण’ कविता में वे कितने सलीके से पेड़ों की महत्ता और उपयोगिता बताते हैं —
“पेड़ लगावs, डारि हिलावs, काटs खूब पकनारी/
ताजा तूरि के दतुअन करs , होखे न कौनो बेमारी / ……
……. …….. ……/ नून -तेल- लकड़ी के हऊवे बहुत पुराना नाता / एही के जोगाड़ बन्हले में सबकर उमर खपाता / ई एकर नोकसान न करs अउर पेड़ लगावs भाई / लोक और परलोक सुधरिहें ,एसे बहुत भलाई।”
महाभारत में एक प्रसंग आता है, जिसमें वृक्षों की उपयोगिता और महत्ता के बारे में ऋषि भारद्वाज से महर्षि भृगु कहते हैं — “एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना।
वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा।।”
इसका प्रभाव प्रभाकर धर के वृक्षारोपण कविता पर साफ़ दिखाई देता है। अभिप्राय यह है कि मानवों को वृक्षों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
कवि प्रभाकर धर द्विवेदी आधुनिक चेतना से युक्त होकर भी परम्परागत मान्यताओं का तिरस्कार नहीं करते हैं। उनकी काव्य दृष्टि सामंजस्य बैठाती है।
‘सुखिया के चिट्ठी’ नामक उनकी कविता ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। उसे दर्जनों बार उनके मुख से सुना हूँ। ‘सुखिया केs चिट्ठी’ के बहाने कविता में कवि प्रभाकर ने भारतीय नारी के आदर्श का निरूपण किया है। पत्नी से पति के मुँह मोड़ने पर विषम परिस्थितियों में नारी अपने आदर्श और भारतीयता को कैसे सुरक्षित रखती है, इसके लिए कवि ने सुखिया के बहाने भारतीय नारियों को बहुत ही अच्छा संदेश भी दिया है, अपने भाई और पिता को चिट्ठी लिखती हुई सुखिया कहती है –“सुखिया सुसुकि केs चिठिया लिखावे / पेटवा केs अगिनिया आँसू से बुझावे / लिखि देईं , कहिके काहें नाहीं अइलें / कवने करनवा से नेहिया भुलइलें / सालि भर पहिले एगो चिट्ठी इहाँ आइल / आवतानी सुनि के हिया हरसाइल / अँगुरी के पोरे पर गिनीं दिन रतिया / केहूँ नाहीं आगे पीछे केसे करीं बतिया / …… ……. …../ नन्हका के पेटे में छोड़ि के गइलs / एक ठो चिट्ठी देके काहें तू भुलइलs / … … ../ लगवें से गनपति दुइ बेर अइलें / खेत खरिहान सम्हारि आपन गइलें / हालि-चालि पूछले पर नीकहि बतावें / आ कानि काहें भीतरें बहुत मुस्कावें / एही कs मतलब बुझि नाहीं पाईं / लइके अबूझ बाड़ें छोड़ि कहाँ जाईं / …… …. …/ एहवाँ तs मजूरी क के लईकन के जिया लेब / तुहरो अउर आपन पानी के रखा लेब / एहीं के मटिया में मटिया मिलाइब / भीखि भवन माँगि के लइकन के पढ़ाइब / झुके नाहीं देब हम भईया केs पगरिया / कब्बो नाहीं धरब हम दूसर डगरिया।” आज के समाज में विसंगतिपूर्ण दाम्पत्य जीवन से हताश-निराश स्त्रियों के लिए इस कविता के द्वारा कवि ने बहुत बड़ा संदेश दिया है।
जीवन और समाज में व्याप्त अनेक असमानताओं के लिए कवि ईश्वर को जिम्मेदार ठहराते हुए अपने मन की व्यथा कहता है –“संसार केs मालिक हे भगवन!तू समदर्शी कहलावलs / …………….
केहू के एगो टेनुआ खातिर सोरह देउकुर पूजवावलs / केहू के लइका गँजिया के नसबंदी पात्र बनावलs ।” तुलसीदास जी भी विनय पत्रिका के द्वारा ईश्वर से अपने मन की व्यथा कहते हैं। कवि प्रभाकर धर द्विवेदी जी को एक मलाल जीवन भर रहा, मीठे आक्रोश के द्वारा उसे मेरे सामने मिलने पर अक्सर व्यक्त कर देते थे। घटना 03 नवम्बर 2003 की है , स्थान- स्वावलम्बी इण्टर कॉलेज बिशुनपुरा गोरखपुर का प्रांगण। विद्यालय द्वारा देश के जाने-माने साहित्यकार पद्मभूषण पं. विद्यानिवास मिश्र को राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा सदस्य मनोनीत किये जाने पर उनके नागरिक अभिनन्दन समारोह का आयोजन किया गया था । रामनवल मिश्र और प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ दोनों लोग मंच से पं. विद्यानिवास मिश्र जी पर कविता पढ़ना चाह रहे थे। कार्यक्रम का संचालन मैं कर रहा था। मंच पर पं. विद्यानिवास मिश्र के अतिरिक्त सांसद राजनारायण पासवान, विधायक बेचन राम और विद्यालय के तत्कालीन प्रबन्ध संचालक/साधिकार नियन्त्रक/सहजिला विद्यालय निरीक्षक हिफजुर्रहमान आदि अनेक गणमान्य लोग थे। सामने श्रोता दीर्घा में क्षेत्रीय प्रबुद्ध जनों के अतिरिक्त जिले के सैकड़ों तेजतर्रार प्रिंसिपल भी थे। प्रोटोकॉल के तहत प्रबंध संचालक हिफजुर्रहमान और प्रधानाचार्य प्रभुनाथ सिंह ‘प्रजेश’ ने पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा पहले से ही तैयार कर रखी थी, मंच से किसको क्या बोलना है,यह पहले से ही तय था,तदनुसार तय सूची से बँधकर मुझे संचालन करना था। प्रबन्ध संचालक और प्रधानाचार्य द्वारा मुझे दी गयी सूची में वक्ताओं में कवि रामनवल मिश्र और प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ का कहीं नाम नहीं था। रामनवल मिश्र जी बचपन में प्राइमरी स्कूल बिशुनपुरा में पं. विद्यानिवास मिश्र के सहपाठी होने के कारण प्रधानाचार्य पर दबाव डालकर मंच से कविता पढ़ लिये , पर अनेक कोशिशों के बावजूद प्रभाकर जी न मंच पर जा सके और न कविता पढ़ सके थे। रामनवल मिश्र जी भोजपुरी के बड़े कवि थे, पर उस दिन मंच पर जम नहीं पाये थे, न जाने क्यों ? प्रोटोकॉल के तहत मैं अपनी मर्जी से किसी को बुला नहीं सकता था और प्रबन्धक और प्रधानाचार्य ने तय सूची के अतिरिक्त किसी को भी बुलाने की अनुमति नहीं दी। जबकि इसका ठीकरा प्रभाकर धर लण्ठ जी ने मुझ पर फोड़ा। वह जीवन पर्यन्त इस बात को कहते रहे कि –“बाबू ! तूs चहले रहतs, तs हम उनके सामने मंच से कविता पढ़ि लिहले रहतीं।’ स्वभावत: कवियों को मंचों का मोह होता ही है,लेकिन मैं इसमें भला क्या कर सकता था, मैं वहाँ कत्तई स्वतन्त्र नहीं था ?
बहरहाल प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ उस दिन मंच से पं. विद्यानिवास मिश्र जी पर जो कविता पढ़ना चाहते थे, उसे यहाँ इस आलेख में मैं हूबहू प्रस्तुत कर रहा हूँ —
“बड़ी सुखद अनुभूति हुई है,आज पास में आकर / हम विभोर हैं, गर्वोन्नत हैं अपना सोना पाकर / धन्य हुई माटी कछार की, जिसने जन्म दिया है / देश-विदेश अनेक पदों पर जिसने सुयश किया है / नाम का अर्थ यथार्थ बनाकर जिसने काम किया है / गोरखपुर के इस दो-आब का जिसने नाम किया है / स्वागत और सम्मान समर्पित इसे आप अपनायें / जन्मभूमि की माटी पर अपना स्नेह लुटायें / मैं भी आपसे आशीर्वाद चाहता,ऐसी इक आशा है / तनिक प्रबुद्ध नहीं हूँ ,तब भी यह अभिलाषा है।”
इन काव्य पंक्तियों में प्रभाकर धर द्विवेदी ने पं. विद्यानिवास मिश्र जी के प्रति पूरी ईमानदारी से यथोचित श्रद्धा निवेदित की है। भारतीय मनीषा के साकार विग्रह पं. विद्यानिवास मिश्र की पुण्यतिथि 14 फरवरी को और कवि प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ’ की पुण्यतिथि 12 फरवरी को है, अतः श्रद्धांजलि स्वरूप उक्त कविता को यहाँ देना उचित लगा है। सरस्वती के वरदपुत्रों को श्रद्धा-सुमन / भावभीनी श्रद्धाञ्जलि ।
“भागीरथी सांस्कृतिक मंच” के संस्थापक सत्यनारायण ‘पथिक’ ने गोरखपुर में वर्ष 2018 में प्रभाकर धर द्विवेदी ‘लण्ठ को “भोजपुरी-रत्न से सम्मानित किया था, इससे प्रभाकर धर जी हमेशा गदगद रहते थे । इसका मैं साक्षी रहा हूँ। ‘पथिक’ जी और उनकी संस्था को इस संस्मरण के माध्यम से भी हार्दिक धन्यवाद।
कवि मन तो सम्मान का ही भूखा होता है। यशाकांक्षा की भूख उसे हर क्षण और हर जगह रहती है। आचार्य मम्मट ने काव्य-प्रयोजन में यश को ही प्रथम स्थान दिया है।
एक बार बातचीत के दरम्यान प्रभाकर जी के बारे में सुप्रसिद्ध नवगीतकार जयप्रकाश नायक ने कहा था कि –“प्रभाकर जी का व्यक्तित्व जितना बेबाक था, उनकी कविताओं में उतनी ही मारक क्षमता और तीक्ष्णता थी। इस अञ्चल में अनेक कवि हुए, किन्तु कवि ‘लण्ठ’ की पैनी नजर और उनकी चुटीली टिप्पणियों का कोई जवाब नहीं था। जो स्थान उन्हें मिलना चाहिए, उसके लिए वे जीवन भर तरसते रहे, जिसके हम-सभी साहित्य-सेवी दोषी हैं।”
मेरे गाँव रानापार में सदा मेरे सम्पर्क में रहने वाले मेरे दो प्रियपात्र साहित्यिक अभिरुचि सम्पन्न मदनमोहन गोरखपुरी और सुनील यादव ने प्रभाकर जी की मृत्यु से साल भर पहले उनके घर जाकर अंगवस्त्रादि देकर सम्मानित किया था,वहाँ उस गाँव के शम्भू शरण यादव, सुनील कुमार धर दुबे, अनिल कुमार धर दुबे और श्यामानंद यादव भी आदि आ गये और एक अच्छी गोष्ठी जम गयी। इससे प्रभाकर जी विह्वल रहते थे।
1990 में मैंने नयी दिल्ली की यात्रा का एक रोचक संस्मरण लिखित रूप में प्रभाकर जी को दिखाया था, उस संस्मरण की चर्चा प्रभाकर जी ने बहुतों से बहुत दिनों तक की थी। उनके पुत्र अरविन्द उर्फ़ मन्नन इधर दो तीन बार कह चुके कि-“बाबू जी आपके दिल्ली वाले संस्मरण की चर्चा सबसे करते थे।” प्रभाकर जी शुरू से ही मेरे गद्य लेखन के प्रशंसक थे। अफसोस ही रहा, उनके जीते जी उन पर कुछ नहीं लिख सका। यह संस्मरण लिख कर मन कुछ हल्का हुआ।
शशिबिन्दु नारायण मिश्र
17.04.2023 सोमवार
लेखक परिचय :
शशिबिन्दु नारायण मिश्र
सुपुत्र श्री जगदीश नारायण मिश्र
जन्म तिथि — 17.07.1969 (जन्म कुंडली के अनुसार)
शिक्षा — एम. ए. (हिन्दी एवं संस्कृत) ।
कार्य —
1– अध्यापक (15.01.2002 से अद्यतन नियमित अध्यापन )
2– सम्प्रति – प्रवक्ता -संस्कृत स्वावलम्बी इण्टर कॉलेज बिशुनपुरा गोरखपुर, 273405।
3— 1993 से 2001 तक आकाशवाणी गोरखपुर में आकस्मिक उद्घोषक ।
3– हिन्दी की श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
4— हिन्दी के श्रेष्ठ ग्रन्थों में सह-लेखन।
5— ‘व्यक्तित्व-विभास’ (संस्मरण संग्रह -प्रकाशनाधीन)।
स्थायी आवास (गाँव) –
(1) – ग्राम- रानापार, पत्रा– बिशुनपुरा, गोरखपुर, उ. प्र. , पिनकोड – 273405 ।
(2)- शहर आवास
‘नारायण-आश्रम’
म. नं. — 53 डी ,
गोरक्षनगर, सिंघड़िया (कूड़ाघाट),
गोरखपुर उ. प्र.
पिनकोड – 273008