मथुरा
🔴रिपोर्ट सत्येंद्र यादव

🔻मथुरा – आज देश में आसामान छूती महंगाई की सबसे ज्यादा मार देश के अन्नदाता किसान पर बहुत ज्यादा पड़ रही है। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले पांच सालों में कृषि संबंधी लागत में जमीन-आमसान से अंतर आ गया है। किसानों पर महंगाई की मार, खाद, बिजली और डीजल की लागत बढ़ने से खेती करने की लागत करीब 20 फीसद बढ़ी। किसान के कृषि यंत्रों में सबसे प्रमुख ट्रैक्टर है जिसका पिछले 5 सालों में करीबन दोगुना यानि उस के दामों में करीब 50 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है। इसके साथ ही डीजल, खाद, बीज, मजदूरी आदि की लगात बढ़ने से खेती करने की लागत तेजी से बढ़ी है। जबकि उस अनुपात में फसलों के मूल्य में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है।

देश में अगर कही भी मंहगाई पर बात शुरू होती है तो संसद से लेकर लाखों रुपए रिश्वत के कमाने वाले बेईमानों तक आलू, प्याज, टमाटर सबको खटकने लगता है। किसानों और मजदूरों का सबसे ज्यादा पेट काटने वालों को आलू, प्याज और टमाटर से बड़ी परेशानी है। लेकिन इन को डीजल, गैस और कृषि यंत्रों के आसमान छूते दाम नहीं दिखाई पड़ते? इनको यह क्यों नहीं दिखता कि डीजल महंगा होने से खेत की जुताई से लेकर बुबाई, ढुलाई, थ्रेसिंग सब दो तीन गुने मंहगे हो गये। इनको पता नहीं कि डि-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) दुनिया का सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला फॉस्फोरस उर्वरक है। जिसकी कीमत आज 1,350 रुपये है जो पिछले साल 1,200 रुपये थी, एक साल में खाद का दाम कितने प्रतिशत बढ़ा इसका गुना भाग कौन करेगा? पोटाश पिछले साल से डेढ़ गुना बढ़ गया। पोटाश का छोटा सा पैकेट 1,700 रुपये हो गया। यूरिया से लेकर बीज, सीमेंट, सरिया, ईंट, कीटनाशक दवाइयों जैसी आम आदमी की जरूरत की चीजों पर महंगाई पर लिखने लगा तो दिन भी छोटा पड़ जायेगा।

सामाजिक कार्यकर्ता और जागरूक किसान रामवीर सिंह तोमर कहते हैं कि सरकार का वादा था कि किसान की आमद डेढ से दोगुनी करेंगे! लेकिन किसानों की हम तो दुगनी नहीं हुई लेकिन उनकी आफत दोगुनी अवश्य हो गई है। आज दिखाने के लिए जिसे देखो वही किसान हितेषी बना घूम रहा है। अब तुम ही बताओ किसकी आमन्दनी दोगुनी हो गई है? किसका हित हो गया है?
किसान के नाम पर देश मे कृषि मंत्री है। किसान के नाम पर कृषि वैज्ञानिक है। किसान के नाम पर कृषि अधिकारी है। किसान के नाम पर किसान नेता हैं, किसानों के हक के लिए लड़ने वाले सैकड़ों किसान संगठन हैं। किसान विशेषज्ञ है, किसान समर्थक है… खेत खलियान और गांव से लेकर राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के दिल लुटियन के सियासी गलियारों तक किसानों की बात और चर्चा करने वाले लाखों लोग तो है मगर किसान कहीं नहीं है। आज देश में किसान के नाम पर चल रही है अनेकों दुकाने, कोई किसान को कर्ज बांटने की फिराक में भटक रहा है तो कोई किसान के उत्पाद पर साइड लाइन बिजनेस स्थापित करने के लिए! कोई किसान नेता बनने के जोड़तोड़ में लगा हुआ है तो कोई किसानों के नाम से पोर्टल लॉन्च कर रहा है, यूट्यूब चैनल खोल रहा है, मैगजीन, लेख, ऑडियो, वीडियो बेच कर मुनाफा कमाने के प्रयास में है! आज देश के किसान का दुर्भाग्य देखिए कि किसान सिर्फ टेलिविजन की डिबेट, अखबारों की सुर्खियों, संसद की बहस और सत्ता की हालत के नशे में चूर नेताओं के भाषणों में है।
किसान साहूकार के यहां कर्ज़ मांगने वालों की कतार में है, किसान ब्लॉक और तहसील अधिकारी के दफ्तर में गिरवी आ रहा है, आज किसान बरसात के दिनों में धान के पानी से भरे लबालब खेतों में है। लेकिन वास्तविक सच्चाई ये है कि वह कहीं नहीं है! आज तो उसका लड़का भी उसका नहीं है। लड़का भी खेती किसानी की लड़ाई लड़ने की बजाय दूसरे धार्मिक मुद्दों में उलझकर देश को बचाने में व्यस्त है। आप सोच रहे होंगे कि किसानों की वीरवानी उनकी हैं लेकिन वह भी उनकी नहीं है। किसान की वीरवानी तो तीज त्यौहार और कथाओं व्यस्त हैं। मुझे लगता है कि कहीं किसान खो गया है। जो उसके लिए लड़ने का दावा करते थे, उनको ढूंढ रहा हूँ। किसान सबसे लाचार, बेबस व बर्बाद कौम है जिसका अपना कोई नहीं है! चर्चा में किसान है, शोशल मीडिया पर किसान है, मगर इसका कोई नहीं!
हिंदी और उर्दू के भारतीय महानतम लेखक मुंशी प्रेमचंद ने “पूस की रात” कहानी करीब 100 साल पहले लिखी थी। प्रेमचंद की कहानी “पूस की रात में” कहानी में उन्होंने किसानों की दो समस्याएं प्रमुख रूप से उठायीं थीं – कर्ज में डूबा किसान और खेती का लाभकारी न होना। कहानी के किसान पात्र हल्कू की तरह देश का किसान आज भी की प्रकार कर्ज में डूबा महाजन और बैंकों के पंजों में है जैसा कि 100 साल पहले था। और दूसरा 100 साल पहले की तरह आज भी खेती लाभकारी नहीं है। जिस तरह हल्कू नीलगाय (वनरोज़) से फसल को बचाने के लिए रात में पहरेदारी करता था, उसी तरह आज भी किसान जंगली सुअरों और छुट्टे घूमते सांड और गायों से खेतों को बचाने के लिए रात भर जाग रहे हैं।
अब तो ऐसा लगता है कि किसान इतिहास का अवशेष है जिसे कूड़ेदान में जाना ही है क्योंकि किसान सोचता है कि उसकी लड़ाई कोई दूसरे ग्रह से आकर लड़ेगा, वह तो केबल दूसरों को गरियाने, खाली समय में ताश खेलने और धार्मिक कथा सुनने में व्यस्त रहेगा। ऐसा ही रहा तो किसान अपने आप ही हाशिए पर चला जाएगा। और धीरे-धीरे खुद ही खेती करने से भाग खड़ा होगा। उसके बाद पूंजीपति आकर कार्पोरेट खेती करेंगे, ज़ाहिर है उनके पास अकूत संसाधन होंगे। अपनी फसलों की मन मर्जी कीमत रखेंगे, किसानों के बेरोजगार युवा उनकी फैक्ट्रियों में सस्ती कीमत पर मजदूरी करेंगे, गांव में बचे खुचे बुजुर्ग इन पूंजीपतियों के यहाँ बेगारी और चौकीदारी करेंगे। इसके तमाम उदाहरण राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के एनसीआर और हरियाणा के कई शहरों में देखने को मिल जाएंगे।